शाश्वती
235,
रिहाड़ी मोहल्ला,
जम्मू .
180005/
मो. 9419210100/
14.03.2010
अज्ञेय स्मारक
व्याख्यान-2010
अज्ञेय व्याख्यानमालाः बदलते सामाजिक परिवेश
में व्यंग्य की भूमिका’
पर प्रेम जनमेजय का व्यख्यान
मित्रों,
मैं
उस पीढ़ी का हूं जिसने के
स्वतंत्रता-शिशु की गोद में अपनी आंखें खोली और
जो इस देश के साथ बड़ा होता हुआ आज बुजुर्ग हो गया है। ये दीगर बात
है कि
देश जवानी के दौर में है। मेरी पीढ़ी
वो पीढ़ी हे जो लालटेन से कंप्यूटर तक
की यात्रा की है। मेरी पीढ़ी ने युद्ध और शांति के अध््याय पढ़े
हैं। मेरी
पीढ़ी ने राशन की पंक्तियों में खड़ी
गरीबी देखी है तो चमचमाते मॉलों में,
विदेशी ब्रांड के लिए नौजवानों की पागल भीड़ देख रही है। मेरी
पीढ़ी ने
बैंकों का राष्ट्रीयकरण देखा है,
हरित क्रांति की हरियाली देखी है तो
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चमचमाते सूदखोर बनिए जैसे
गैरराष्ट्रीयकृत बैंक
देखे हैं तथा समृद्ध,
विदेशी निवेश से चढ़ते
शेयर बाजार के सैंसक्स के बीच
भारत में आत्महत्या करते हुए किसान भी देखे हैं। मैंनें विश्व में
छायी
मंदी के बावजूद देश की अर्थ-व्यवस्था
की जी डी पी को बड़ते देखा है पर साथ
ही ईमानदारी,
नैतिकता,
करुणा आदि जीवन मूल्यों की मंदी के कारण गरीब की जी
डी पी को निरंतर गिरते ही देखा है।
देश स्वतंत्र हुआ तो उसके अनेक मायने लगाए गए । प्रभु की
मूरत
की तरह
,
प्रत्येक ने स्वतंत्रता-प्रभु को जाकि रही भावना जैसी अंदाज में
देखा। कुछ के लिए आजादी,
दो रोटी से आठ रोटी के
जुगाड का यंत्र बन गयी तो
कुछ के लिए
,
रही सही दो रोटियां बचाने
का प्रयत्न बन गयी । बहुतों का
आजादी से मोह भंग हुआ तो कुछ के लिए आजादी मोह का कारण बन गयी ।
अनेक ऐसे
संत पैदा हुए जिन्होंनें दूसरों को तो
इस मोह से दूर रहने के प्रवचन सुनाए
और स्वयं इस
‘मोह’
की चरण- वंदना में डूब गए । ऐसे लोग जितना डूबे उतना ही
तरे । ये दूसरों को डुबाने के लिए तरे ।
स्वतंत्रता के बाद राजनैतिक क्षेत्र में विसंगतियां अधिक
बढीं । स्वतंत्रता
से पहले लडाई का शत्रु स्पष्ट था । सभी
जानते थे कि वो
किसके खिलाफ लड रहे हैं,
और इस लडाई में हथियार भी
उठते थे । शत्रु की
शत्रुता स्पष्ट थी । स्वतंत्रता से पहले विषय की दृष्टि से उसकी
सीमाएं भी
थीं वह आजादी के बाद दूर हो गयीं ।
विदेशी शासन के खिलाफ सीधे -सीधे लिखने
के बहुत खतरे थे
,
यही कारण है कि भारतेंदु
ने शासन की विसंगतियों को प्रकट
करने के लिए
‘अंधेर नगरी’
का सृजन किया । भारतेंदु द्वारा तत्कालीन शासन
की विसंगतियों की आलोचना का यह रूप अप्रत्यक्ष था ।
भारत में प्रजातंत्र
की स्थापना ने विचार की जो स्वतंत्राता
दी उससे शासन की विसंगतियों की
प्रत्यक्ष आलोचना का अधिकार मिल गया । आजादी आई और उस आजादी से
लोगों को
आशाएं भी बहुत थी । अक्सर भविष्य
स्वर्णिम लगता है परन्तु जब वह वर्तमान
में बदल जाता है तो मोह भंग की स्थिति पैदा करता है,
क्योंकि अपने स्वर्णिम
भविष्य से हम अपनी बहुत आशाएं जगा चुके
होते हैं । इसके साथ यह भी सत्य है
कि अपनी आजादी के लिए लड़ने वाले जब आजादी पा लेते हैं
,
सता सम्भाल लेते
हैं
,
तो लड़ने वालों का चरित्र बदल जाता है । अनेक विसंगतियां जन्म लेने
लगती हैं ।धीरे - धीरे देश की राजनीति
मूल्यों से खिसक कर,
इतनी मूल्यवान
होने लगी कि अनेक व्यावसायीयों के
आकर्षण का केंद्र बन गयी । राजनीति के
अपराधीकरण ने
‘महान’
देशभक्तों को सुअवसर प्रदान किया कि वे जेलों की चार
दिवारी से बाहर निकलें और राष्ट् के निर्माण में अपना अभूतपूर्व
योगदान दें
। एक समय अपने राजनैतिक आकाओं की सता
बहाली के लिए किसी को भी
उनके
रास्ते से हटाने वाले सेवको को अपना
महत्व तथा सता के खून का स्वाद मिल ही
गया । एक समय था राजनीति में कुत्तों का बहुत बडा महत्व था
,
धीरे -धीरे
उनका स्थान भेड़ियों ने ले लिया । ऐसी
अनेक राजनैतिक
विसंगतियां थीं जिनके
कारण सजग साहित्यकार के विचार तंतुओं
पर दबाव पडा । एक पीड़ा ने उसके अंदर
जन्म लिया । देश के प्रति उसकी निष्ठा ने उसको विवश किया कि वह इन
विसंगतियों के विरुद्व अपने आक्रोश को अभिव्यक्त करे । जैसे - जैसे
विसंगतियां बढीं वैसे - वैसे र्व्यंग्य लेखन में वृद्वि हुई ।
समाज में कोई व्यक्ति या समूह सामाजिक मर्यादाओं
,
मूल्यों अथवा आदर्शों के विरुद्ध जाता है तो उसे सही मार्ग पर लाने
के अनेक
तरीके हैं । एक तरीका तो यह है कि सजा
का डर दिखाकर उसे सुधारा जाए पर
अक्सर सजा व्यक्ति को अपराधी बनाए रखती है । दूसरा तरीका यह है कि
उसे
नैतिकता की कड़वी खुराक - सा भाषण
पिलाया जाए पर जिसे प्यास ही न हो उसे
कुछ भी पीना अच्छा नहीं लगता । तीसरा तरीका यह है कि उसका सरे आम
मज़ाक
उड़ाया जाए । सरे आम उड़ाया गया मज़ाक
बहुत आहत करता है और आहत व्यक्ति
महाभारत का युद्ध तक लड़ लेता है । सभी जब एकसाथ किसी एक व्यक्ति
या
प्रवृत्ति का मज़ाक उड़ाते हैं तो मुंह छुपाना कठिन हो जाता है ।
व्यंग्यकार की महत्वपूर्ण भूमिका यही है कि वह लक्ष्य की
विसंगतियों की
पहचान कर उसका मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक दबाव के आगे
झुकना
उसकी मजबूरी है । किसी सामाजिक विसंगति
का मज़ाक बनाकर वह अपने साथ अपने
पाठकों की एक फौज तैयार करता है । यह फौज ही उसका हथियार होती है ।
वह
विसंगति को प्रचारित कर लक्ष्य को
शर्मिंदा करता है । एक चोर या डकैत को
चोर या डकैत कहलाने में कोई शर्म नहीं आती है । उसकी चोरी या डकैती
चर्चे
प्रकाशित होते हैं तो वह हीरो बन जाता
है । पर
खादी पहन सेवा के नाम पर
देश की डकैती करने वाले का चेहरा जब
प्रचारित होता है तो वह अपने तथाकथित
साफ चेहरे की सफाई देने लगता है । यहॉं व्यंग्यकार के बारे में एक
बात मैं
साफ - साफ कहना चहता हॅंूं ।
व्यंग्यकार चाहे कितना आक्रोश प्रगट करे,
कितनी ही आक्रामक मुद्रा ग्रहण करे और स्वयं को नायक समझने की भूल
करे,
उसका यथार्थ यह है कि वह अपने लक्ष्य के दुष्ट स्वभाव को बदल पाने
में
व्यक्तिगत धरातल पर नपुंसक विरोध के
अतिरिक्त कोई ताकत नहीं रखता है । उसके
विरोध को तो हंसकर उड़ाया जा सकता है । उसकी असली ताकत पाठकों की
उसकी फौज
है,
जिस फौज सामने नंगा होने से विसंगतिपूर्ण चरित्र डरता है। आदमी
यथार्थ
के प्रकटीकरण सें उतना नहीं डरता है
जितना विसंगति के नंगा होने से ।
समाज वही होता है
पर उसे देखने के हमारे अपने- अपने यथार्थ
होते हैं । आज का सामाजिक यथार्थ यह है कि हमसे हमारा यथार्थ बहुत
पीछे
छूटता जा रहा है । सबसे पहला सवाल तो
यही है कि आज का हमारा सामाजिक यथार्थ
क्या है?
जब समाज को देखने के भिन्न
-भिन्न नजरिए होंगें तो सामाजिक
यथार्थ भी भिन्न ही होगा । आजकल तो समाजिक परिवेश को
को विभिन्न राजनैतिक
पार्टियों के चश्में से देखने की अपनी-
अपनी दृष्टियॉं हैं । समाज देखने का
मेरा नजरिया तेरे नजरिए से बेहतर सिद्ध करने में हमारे कर्णधार
वैसे ही
व्यस्त हैं जैसे दशहरे के समय में अपने
- अपने रावणों का बेहतर कद देखकर
राम के
‘धार्मिक’
भक्त प्रसन्न होते हैं ।
जब हम
अपने आस-पास के लोगों से मिलते हैं
तो अक्सर बहुत ही औपचारिक सवालों के साथ मिलते हैं ।
‘‘
और क्या चल रहा है
?
जीवन कैसा चल रहा है
? ’’
जैसे सवालों का उत्तर देते समय कुछ आस्तिक - सा
उत्तर देते हैं-- उपर वाले की कृपा है । कुछ उदासी को स्वर में
घोलकर कहते
हैं- ठीक है । कुछ जीवन को कट रहा
बताते हैं,
कुछ बस चल रही है कहकर
सवाल
से छुटकारा पाने की मुद्रा में होते
हैं तो कुछ बस जी रहे हैं जैसी
निर्लिप्त मुद्रा में और कुछ के लिए जीवन व्यर्थ बहा,
बहा दो सरस पद भी न
हुए अहा ! होती है । कुछ इतनी तेजी में
होते हैं कि आप पूछते जीवन के बारे
में हैं और वो आपके सवाल को अनसुना कर अपनी हांकते हैं तथा किसी को
भी एक
दो गालियॉं सुनाकर ये जा वो जा होते
हैं । तुलसी बाबा के स्वर में स्वर
मिलाकर कह सकते हैं कि जाकि रही भावना जैसी जीवन मूरति देखी तिन
तैसी । ऐसे
ही ज्ञानीजन समाज को अनेक रूपों में
देख डालते हैं । कुछ के लिए धर्म की
हानि हो रही है और समाज रसातल मे जा रहा है तथा अब प्रलय हुआ ही
चाहती है ।
कुछ गांधी बाबा के बंदरों की तरह आंख
कान मुंह,
सब कुछ,
मूंद लेना चाहते
हैं
। कुछ त्यागी समाज को गंदगी से बचाने के लिए स्वयं गंदगी के ढेर पर
जा
बैठते हैें । कुछ समाज में रहते हुए
कमल से निर्लिप्त स्वयं में ही लिप्त
रहते हैं । उनको न्याय - अन्याय,
अच्छा-
बुरा,
ईमानदारी- बेईमानी में से
कुछ भी नहीं व्याप्ता है । कुछ खाते
हैं और सोते हैं और कुछ कबीर की तरह
जागते और रोते हैें । कुछ के लिए उनका पुराना जमाना ही अच्छा था
चाहे उस
जमाने में चीर- हरण होते रहे हों
,
अपहरण होते रहे हों
,
शम्बूकों की
हत्याएं होती रही हों । कुछ समाज में
रहते हैं पर समाज के बारे में सोचने
के लिए उनके पास समय नहीं है,
बहुत बिजी़ लोग हैं । आप
समाज का निरर्थक
अर्थ निकालने की चिंता में अपने बाल
नोच -नोच कर दुबले हुए जाते हैं और यह
सार्थक अर्थालाभ कर अपने घर को भरने की जुगाड़ में मुटियाए जाते
हैं । कुल
मिलाकर कह
सकते हैं कि विश्व परिवर्तनशील और उसी लय में समाज भी
परिवर्तनशील है। समाज अपने को अनेक स्तरोें पर जीता है और उन
स्तरों पर
छोटे बड़े,
अनेक परिवर्तन एक समूह को
जन्म देते हैं। अज्ञेय ने
‘लेखक और
परिवेश’
में परिवेशगत परिवर्तनों के बारे में कहा है- आज की बड़ी दुनिया
में मेरा परिवेश स्थितिशील नहीं है,
वह सतत चलनशील है! सभी संबंध गतिशील
हैं। उनका जो रूप मेरी चेतना को छूता है वह छूने-छूने में बदलता
जाता है।
बल्कि वह छुअन ही मानों नाड़ी की छुअन
है या कि एक घूमते हुए पहिए के नेमे
की- जिसका स्पर्श भी नहीं कहता कि
‘‘मैं
हूं’’
यही कहता है कि मैं हो रहा
हूं... या कि इससे भी आगे
‘मैं
होते- होते यह - यह नहीं वह होता जा रहा
हूं’...
जिस परिवर्तन के बीच में रहता हूं- यानि मेरा जो परिवेश है वह एक
असुंतलन से दूसरे असंतुलन तक का है।’
अज्ञेय ने अपने समय की,
बड़ी दुनिया की बात की है और अज्ञेय
के बाद यह दुनिया कितनी और बड़ी हो गई है,
हम सब देख ही रहे हैं। आज से
लगभग तीन दशक पहले लिखे इस लेख में अज्ञेय ने उस विवशता की चर्चा
की है
जहां ‘मैं
होते- होते यह - यह नहीं वह होता जा रहा हूं’...
और इस परिवर्तन
के बीच जो परिवेश है वह एक असुंतलन से
दूसरे असंतुलन तक का है।’
पिछले एक
दशक में यह असंतुलन अधिक विस्तृत हुआ
है। वर्तमान व्यवस्था असंतुलन के
संतुलन व्यवस्थित कर अपने स्वार्थों को सिद्ध करने में व्यस्त है।
नव
उदारवाद आर्थिक वैषम्य की खाई को
निरंतर बढ़ाता जा रहा है और इसके लिए उसने
मध्यम वर्ग को अपना टूल बनाया है। उसकीे संस्कारशील,
मानवीय मूल्यों के
प्रति चिंतित,
अस्मिता एव संस्कृति के प्रति सजग तथा गलत के विरुद्ध,
चेतना
को,
पूंजी की चकाचौंध से सुप्त करने का निरंतर षड़यंत्र चालू आहे।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा,
मध्यम वर्ग की नयी पीढ़ी
को तीन चार गुना
वेतन देकर उसकी सामाजिकता और परिवार
छीन लिया है।
एक भयंकर षड़यंत्र चल रहा है और पूंजीवाद हमारा स्वामी बनने
के लिए अनेक प्रकार
‘आयोजन’
कर रहा है। कभी अचानक हमारे देश की दो एक
सुंदरियों को विश्व सुंदरी बनाकर यहां अपना बाजार फैला लिया जाता
है और कभी
आपकी भाषा को सर्वप्रिय बनाने के छद्म
में आपकी भाषा छीनी जाती है।
वैश्वीकरण और विश्वव्यापार की स्थितियां सभी को प्रभावित कर रही
हैं। एक
समय था बीस कोस पर भाषा अदल जाती थी और
तीस कोस पर पानी बदल जाता था। आजकल
सब जगह एक-सा ही पानी मिलता है- बोतल में बंद तथाकथित मिनरल वॉटर।
दिल्ली
को उसकी गलियां छोड़कर चली गई हैं और
उनका स्थान मॉल-संस्कृति ने ले लिया
है। पहले हर शहर की एक पहचान होती थी जो उसकी भाषा,
संस्कृति,
खान-पान तथा
गलियों कूचों से जुड़ी होती थी,
पर अब वो धीरे-धीरे गायब होती जा रही है।
सभी शहर एक से लगने लगे हैं। निर्मला जैन की एक नयी संस्मरणात्मक
कृति आई
है, ‘दिल्ली
शहर दर शहर’
जिसमें उन्होंनें दिल्ली
के बदलते चेहरे का बहुत
ही बारीकी से प्रस्तुतिकरण किया है। आज जब वो अपनी दिल्ली को पीछे
मुड़कर
देखती है तो लगता है कि ये दिल्ली तो
वो रही नहीं,
जिसकी गलियों में वे खेल
खेलकर बड़ी हुईं। इस बदलाव के कारणों
एवं षड़यंत्रा पर अपनी नजरिया
प्रस्तुत करते हुए वे लिखती हैं- हर शहर का अपना एक चेहरा होता है,
जो उसकी
जीवन-शैली,
बोली -बानी मेले-ठेलों,
रीति - रिवाज़ों यानी कुल
जमा
सांस्कृतिक विन्यास से पहचाना जाता है।
वर्तमान परिदृश्य में सभी शहरों की
जीवन शैलियॉं एक महा-मंथन की गिरफ़्त में हैं। बहु राष्ट्रीय
कंपनियां सबका
‘महानगरीय’
ब्रांडधर्मी संस्कृति में कायाकल्प करने में लगी हैं। मुनाफा
इसी में है,
जिसके लिए वे ग्रामीण
क्षेत्रों में भी घुसपैठ करने की पि़फराक
में हैं। सवाल जातीय विशिष्टताओं और अस्मिताओं को अंतरराष्ट्रीय
ब्रांडो
के आक्रमण से बचने का है। कौन कितना
बचेगा,
जैसे यह तय नहीं,
वैसे ही यह भी
निश्चिय करना संभव नहीं कि अंतिम
परिणति किसके हित में होगी।’
मित्रों,
केवल शहरों का चेहरा ही नहीं बदल रहा है,
व्यक्ति के
अंदर का चेहरा भी बदल रहा है। नव
उदारवाद अधिक आर्थिक अर्जन की जठराग्नि
में निरंतर घी डालकर उसे धधका रहा है। वर्तमान व्यवस्था में पैसे
की ताकत
ने सामाजिक को विवश कर दिया है कि उसका
एकमात्र लक्ष्य,
जैसे-तैसे अधिक धन
का उपार्जन रह जाए। ये पैसे की ताकत ही
है कि पचास रुपए की चोरी करने वाला
पुलिस के डंडे खाता है,
जेल जाता है और पचासों
करोड़ की चोरी करने वाला
टीवी चेनलों में हीरो बनता है। इतने आर्थिक घोटाले हुए हैं पर
कितने को
हमारी न्यायव्यवस्था ने सजा के योग्य
समझा ये किसी से छुपा नहीं है। हमारी
जनता की स्मृति बहुत क्षीण है। आज नंगई की मार्केटिंग का धंधा
जोरों पर चल
रहा है और साहित्य में भी ऐसे
ध्ंाधेबाजों का समुचित विकास हो रहा है ।
कुटिल -खल -कामी बनने का बाज़ार गर्म है । एक महत्वपूर्ण
प्रतियोगिता चल
रही है -- तेरी कमीज मेरी कमीज से इतनी
काली कैसे
?
इस क्षेत्र में
जो
जितना काला है उसका जीवन उतना ही उजला है । कुटिल - खल-कामी होना
जीवन में
सफलता की महत्वपूर्ण कुंजी है । इस
कुंजी को प्राप्त करते ही समृद्धि के
समस्त ताले खुल जाते हैे । बहुत आवश्यक है सामाजिक एवं आर्थिक
विसंगतियों
को पहचानने तथा उनपर दिशायुक्त प्रहार
करने की । पिछले दस वर्षों में पूंजी
के बढ़ते प्रभाव,
बाजारवाद,उपभोक्तावाद
एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ‘संस्कृति’
के भारतीय परिवेश में चमकदार प्रवेश ने हमारी मौलिकता का हनन
किया है। अचानक दूसरों का कबाड़ हमारी सुंदरता और हमारी सुंदरता
दूसरों का
कबाड़ बन रही है । सौंदर्यीकरण के नाम
पर,
चाहे वो भगवान का हो या
शहर का,
मूल समस्याओं को दरकिनार
किया जा रहा है । धन के बल पर आप किसी भी राष्ट्र
को श्मशान में बदलने और अपने श्मशान को मॉल की तरहा चमका कर बेचने
की ताकत
रखते
हैं ।
आजकल आत्मा की आवाज की जैसे सेल लगी हुई
है । जिसे देखो वो ही आत्मा की आवाज
सुनाने को उधर खाए बैठा है । आप न भी
सुनना चाहें तो जैसे -क्रेडिट कार्ड,
बैंकों के उधारकर्त्ता,
मोबाईल
कंपनियों के विक्रेता अपनी कोयल-से
मधुर स्वर में आपको अपनी आवाज सुनाने को
उधार खाए बैठे होते हैं,
वैसे ही आत्मा की आवाज
सुनने-सुनाने का धंधा चल
रहा है । कोई भी धाार्मिक चैनल खोल लीजिए,
स्वयं अपनी आत्मा को सुला चुके
ज्ञानीजन आपकी आत्मा को जगाने में लगे रहते हैं । आपकी आत्मा को
जगाने में
उनका क्या लाभ?
प्यारे जिसकी आत्मा मर गई हो वो धरम- करम कहां करता है,
धरम-करम तो जगी आत्मा वाला करता है और धरम-करम होगा तभी तो
धार्मिक-व्यवसाय
फलेगा और फूलेगा। धर्म एक उद्योग हो
गया है। इसलिए जैसे इस देश में
भ्रष्टाचार के सरकारी दफतरों में विद्यमान् होने से वातावरण जीवंत
और
कर्मशील रहता है वैसे ही आत्मा के शरीर में जगे रहने से
‘धर्म’
जीवंत और
कर्मशील रहता है । कबीर के समय में
माया ठगिनी थी
,
आजकल आत्मा ठगिनी है ।
माया के मायाजाल को तो आप जान सकते हैं
,
आत्मा के आत्मजाल को देवता
नहीं
जान सके आप क्या चीज हैं । सुना गया है
कि आजकल आत्मा की ठग विद्या को
देखकर बनारस के ठगों ने अपनी दूकानों के शटर बंद कर लिए हैं ।
आत्मा की
आवाज कितनी सुविधजनक हो गई है,
जब चाहा जगा दिया जब चाहा सुला दिया जैसे घर
की बूढ़ी अम्मा
,
जब चाहा मातृ- सेवा के नाम
पर
,दोस्तों को दिखाने के लिए
ड्ाईंग रूम में बिठा लिया और जब चाहा
कोने में पटक दिया ।
आज किसी भी राष्ट्र को भौगोलिक दृष्टि से गुलाम
बनाना अत्यधिक कठिन कर्म है परंतु
आर्थिक दृष्टि से परतंत्र बनाना और उसकी
संस्कृति तथा भाषा छीनकर उसकी अस्मिता की पहचान को मिटाना बहुत सरल
उपाय
है। यदि आप ध््यान से देखें तो हमारे
चारों ओर नवआधुनिकवाद,
सूचना क्रांति
आदि के माध््यम से यही किया जा रहा है।
यह सिद्ध किया जा रहा है कि हिंदी
भाषा लंगड़ी है और वो बिना अंगेजी की बैसाखी के आगे नहीं बढ़ सकती
है। इस
अभियान में हिंदी के कुछ समाचार पत्र
और तथाकथित मीडियाऋ विशेषज्ञ,
सहायक
की भूमिका निभा रहे हैं।आम आदमी के
द्वारा पढ़े जाने वाले अखबार का दावा
करने वाले,
ऐसी भाषा का प्रयोग कर रहे
हैं जो संकर संस्कृति के युवाओं
द्वारा बोली जाती है। भाषा हमारा सामाजिक स्तर नापने का यंत्र बन
गया है।
हिन्दी का भी भूमंडलीकरण हो गया है । हिन्दी मात्र
अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में एक
भाषा ही नहीं है अपितु वह बाजार को
विवश कर रही है कि वह उसकी ताकत को स्वीकारे । परंतु हिंदी की इस
ताकत का
प्रयोग उसको भस्मासुर बनाकर नष्ट करने
के लिए हो रहा है। हिंदी बाजार की
भाषा बन गई है और इस रूप में ताकतवर लगती दिखाई देती है परंतु
वस्तुस्थिति
कुछ और है। हिंदी के इस ताकत के छद्म
में उसके सर्वांगीण विकास के बहाने से
उसे भ्रष्ट किया जा रहा है। प्रत्येक चैनल की हिन्दी अपना ही
इस्टाईल मार
रही है । विज्ञापनों की भाषा
,
समाचारों की भाषा
,
धारावहिकों की भाषा और
हिन्दी फिल्मों से अपनी रोजी - रोटी
!
चलाने वाले बेचारे हीरो हिरोईन की
कब्जीयुक्त हिन्दी - भाषा ने आपके कानों में अनेक प्रकार के रस
घोले ही
होंगें । वैसे तो आपके पब्लिक स्कूली होनहार की अध्यापिका या
अध्यापक
आपसे
हिन्दी में बात करके अपना स्तर नहीं गिरायेगी / गिरायेगा और अगर
उसने गिरा
भी लिया तो जो हिन्दी उनके श्रीमुख से
निकलेगी उसे सुन आप ईश्वर से
प्रार्थना करेंगे कि हिन्दी का जो होना है हो
,
भाषा के कारण इनका स्तर न
गिरे । सरल / आसान / आम आदमी की भाषा आदि के नाम पर हिन्दी से जो
बलात्कार
हो रहा है उसे एक अच्छे नागरिक की तरह
आप नज़र अंदाज कर ही रहे होंगें ।
‘
चैलनी हिन्दी समाचारों
’
में भाषा की सरलता के नाम
पर जो अंग्रेजी का
कुमिश्रण होता है उसे देखकर तो यही
लगता है बेचारी हिन्दी बहुत गरीब है
जिसके पास शब्द नहीं हैं और समर्थ अंग्रेजी कितनी उदार है कि वह
हिन्दी को
शब्द दे रही है । मैंनें अनेक हिन्दी
समाचारों में
‘
आसान हिन्दी
’
के
नामपर अंग्रेजी शब्दों का जो मिश्रण
देखा है उससे तो अनेक बार भ्रम होने
लगता है कि यह समाचार हिन्दी के हैं या अंग्रेजी के । फिर मेरा
देसी मन
मुझे डांटता है कि रे जड़ तूने कभी
अंग्रेजी के समाचारों में हिन्दी के
वाक्यों को सुना है जो ऐसी शंका करता है । अंग्रेजों ने हमपर शासन
किया था
कि हमने उनपर ! आज जो वे अपने माल को
बेचने के लिए तेरी तुच्छ हिन्दी का
प्रयोग कर रहे हैं
,
तेरी हिन्दी को अपनी
अंग्रेजी से समृद्ध कर रहे हैं तो
तूं उनका अहसान मान और नत्मस्तक हो जा । अंग्रेजी बोलने में जो
गौरव है वो
हिन्दी बोलने में कहा । दिल्ली
विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ते समय मैंनें
अक्सर अनुभव किया कि विद्यार्थी हिन्दी और उसके पढ़ाने वाले
को बहुत
फालतू - सी वस्तु समझते हैं ।
भाषा की बात चली है तो मुझे अज्ञेय का एक व्यंग्य
स्मरण हो आया। उसका शीर्षक है- साहब
हैं। उसमें भाषा के प्रति गुलाम
मानसिकता एवं तुच्छ भाव पर प्रहार करते हुए अज्ञेय लिखते हैं-
दिल्ली में
हिंदी का स्थान वही है जो कि
‘राजधानी’
में एक
‘वेर्नाक्युलर’
का होता है ,वेर्ना,
घर में जन्मा हुआ दास,
दास-पुत्र’
तो यही वह जल-वायु है जिसे पी
कर और जिस से ंिसच कर दिल्ली की हिंदी पलेगी,
बढ़ेगी और फल देगी- जैसा भी
फल... और वह फल दिल्ली में ही खया जायेगा,
ऐसा नहीं है। दिल्ली तो राजधानी
है,
जहां समूचे देश के मानक बनते हैं,
जहां से कसोटियां बाहर भेजी जाती
हैं। दिल्ली का यह फल
;दिल्ली का यह विषाक्त लड्डू!द्ध सारे
देश में बंटता
है,
इसी का बीज आस-पास बोया जाता है कि वहां भी पौध तैयार हो और फले...
आज का समय विसंगतियों से भरा हुआ है और चकाचौंध
में सामाजिक सरोकार तथा मानवीय मूल्य
धुंधलाते जा रहे हैं । अस्मिता पर
लुके छिपे हमले हो रहे हैं । ये सब ईमानदार मस्तिष्क पर निरंतर
अपने प्रभाव
छोड़ते रहते हैं । मुझे लगता है कि जिस
तरह से पिछले डेढ़ दशक में पूंजी
के प्रभाव से भारतीय समाज में विसंगतियां बढ़ी हैं तथा वर्तमान
व्यवस्था
आपको हताश-निराश एवं अवसाद में अकेला
महसूसने को विवश कर रही है,
ऐसे में
इन सबसे लड़ने का एक मात्र हथियार
व्यंग्य ही है। कुछ ऐसी ही परिस्थिति
कमलेश्वर के सामने उपस्थिति हुई थी। इलाहबाद से दिल्ली जैसे महानगर
में आने
पर उनहें लगा कि जिस फार्म और
ट्रीटमेंट को वे अपना रहे हैं वो कही मिसफिट
है। यही कारण है कि उन्होंनें
1970
में प्रकाशित
‘जिंदा
मुर्दे’
संकलन की
भूमिका में लिखा था ---जब मैं इलाहबाद
छोड़कर दिल्ली आया था और दिल्ली आते
ही एक रचनात्मक शून्य में फंस गया था,
कयोंकि तब तक लिखी कहानियो की भाषा,
गति और फार्म आदि मेरे काम नहीं आ रहे थे। सच्चाइयां इतनी उलझी हुई
लग रही
थीं कि उनका छोर समझ नहीं आ रहा था,
ऐसे में विडम्बनाओं पर ही दृष्टि टिकती
है। अब मुझे लगता है कि अपने समय और परिवेश को समझने में प्राथमिक
दृष्टि
व्यंग्य की ही हो सकती है। इस संग्रह
की कहानियां मेरे लिए अत्यंत
महत्वपूंर्ण हैं,क्योंकि इनके सहारे ही मैंनें पहली बार
महानगर की उलझी हुई
जिंदगी के छोर सुलझाए थे। -जिंदा मुर्दे
1970
और संभवतः इसी कारण,
बदलते हुए सामाजिक परिवेश में जब वरिष्ठ आलोचक
नित्यांनद तिवारी
‘रागदराबरी’
की पुनः आलोचना करते हैं तो स्वीकार करते हैं -
लगभग तीस वर्ष पहले मैंने
‘राग दरबारी’
का एक विश्लेषण किया था। मेरे
विश्लेषण का तौर-तरीका यथार्थवादी ढांचे के भीतर था। उसमें भाषा और
वास्तविकता के बीच संबंध होता है। व्यंग्य वास्तविकता के विद्रूप
को उभारने
वाली एक शैलीगत विशेषता है। तब मैंने
पाया था कि
‘व्यंग्य’
का अतिरंजित
उपयोग इस उपन्यास को वास्तविकता से अलग
एक स्वाद-रुचि देता है। लेकिन अब
मैं
‘राग
दरबारी’
के साक्ष्य पर ही कह सकता
हूं कि ये जो व्यंग्य है वह
विद्रूप से अधिक
‘रियलिटी’
और
‘वर्चुअल
रियलिटी’
का फर्क सामने ले आता
है।’’
इसी कसौटी के आधार पर वे
‘राग
दरबारी
’
की समीक्षा करते हुए उसे
आज के
समय की दृष्टि से देखते हैं।
‘राग
दरबारी’
चाहे आज से तीस बरस पहले
लिखा
गया हो परंतु प्रो0
तिवारी की अधुनात्तम समीक्षा दृष्टि के कारण सामयिक
सामाजिक परिस्थितियों का विदृूप उभारने वाला हो गया है। वे लिखते
हैं-
स्थानीयताओं का इस्तेमाल कॉरपोरेट
दुनिया कर रही है और इसका दोहन करना
चाहती है। विकास की राष्ट्रीय धारणा या सामाजिक विकास की धारणा से
वह जुड़ी
हुई नहीं है बल्कि जो स्थानीयता है
उसका कॉरपोरेट दुनिया में किस तरह
उपयोग हो सकता है,
इसके लिए इस्तेमाल की जाती
है। इसलिए जैसे सिंगूर है या
और तमाम जगह हैं,
पिछड़े इलाके में उनका
उपयोग उसी तरह हो रहा है जैसी हैवी
इंडस्ट्री नेहरू ने लगाई थी?
या इनके कॉरपोरेट
निहितार्थ राष्ट्रीयता से
अधिक और अलग हैं। सामाजिक विकास होता है या नहीं होता है इसमें
उनकी विशेष
रुचि नहीं है,
वो बाई प्रोडेक्ट हो सकता है लेकिन
टारगेट ऐरिया नहीं है।
ऐसी हालत में जो कॉरपोरेट हित है,
उनमें स्थानीयता का उपयोग कैसे किया जा
सकता है ये अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।
ये किसका कथन है मुझे याद नहीं आ रहा है- पर्सनल इश
पोलिटिकल। क्या
राजनीति कभी समाज की चिंता के बगैर बनी
है?
नहीं बनी। पर अब बिना
सामाजिक
हुए आदमी पोलिटिकल हो सकता है। जो निजी
है,
ग्लोबल है वो पोलिटिकल हो
जाएगा। निजी को मैं स्पष्ट कर दूं,
निजी से मेरा अर्थ निहितार्थ है।
निहितार्थ की रक्षा करना पोलिटिकल है और समाज की जिम्मेदारी लेना
पोलिटिकल
नहीं रह गया है। इस तरह के जो
कांस्ट्रक्ट्स हमें दिखाई पड़ते हैं
मैं व्यंग्य या अतिरंजना को यथार्थ उभारने का एक
‘टूल’
नहीं मानता हूं
बल्कि ये एक ऐसा मॉडल है जो पूरे के
पूरे इस दौर को और आज तक के इस दौर को
परिभाषित कर सकता है।’’
व्यंग्य,
बदलते सामाजिक
परिवेश में उत्पन्न विसंगतियों के
विरुद्ध लड़ाई का एक सार्थक हथियार बन
गया है। सामयिक परिवेश में अवसाद,
मूल्यहीनता,
एकाकीपन आदि की उत्पन्न
स्थिति का सामना करने के लिए व्यंग्य
एक उपयुक्त माध््यम है। यहां मेरे
वक्तव्य से यह आशय नहीं लिया जाये कि लालटेन से आरंभ हुई अपनी
जिंदगी के
कारण मैं कंप्यूटर आदि जैसी नयी
तकनीकों का विरोध करने वाला कोई पोंगा
पंडित हूं और सामाजिक मानवीय मूल्यों को बचाने के लिए पिछड़ेपन से
भरपूर
समाज की वकालत कर रहा हूं। हम सब जानते
हैं कि हमारा अतीत चाहे सोने की
चिड़िया-सा कितना स्वर्णिम रहा हो,
अनेक विसंगतियों से भरा
था। हम जातिवाद,
क्षेत्रतियतावाद,
अस्पृश्यता जैसे कितने ही अंधेरों से घिरेे रहे हैं। कल
महिला दिवस है और हम जानते हैं कि हमारे समाज में आज भी नारी की
स्थिति
कितनी विसंगतिपूर्ण है। आज भी भ्रूण
हत्या जैसे कलंक से हम बच नहीं पाए
हैं। हम दिखावे में आधुनिक हो गए हैं पर हमारी सोच आधुनिक नहीं हो
पा रही
है। और यही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है।
कुछ ऐसी ही विसंगतियां निरंतर
आधुनिक,
अतिआधुनिक होते हमारे सामाजिक परिवेश की है। विज्ञान ने हमारी
दुनिया को हथेली में सरसों- सा जमा दिया है। संचार माध्यमों,
सूचना
प्राद्योगिकी आदि के कारण हम निरंतर
प्रगतिपथ पर अग्रसर हैं। इस क्षेत्र
में हो रहे निरंतर अनुसंधान प्रतिदिन कुछ न कुछ नये का हमारे जीवन
का अंग
बना रहे हैं। इस प्रक्रिया में नया
बहुत जल्दी पुराना हो रहा है।
प्रतियोगिता के इस परिवेश में
,
नया परोसकर जैसे - तैसे
आगे बढ़ने की लालसा
ने लक्ष्य को महत्वपूर्ण कर दिया है और माध्यम को गौण। यहीं
साहित्यकार की
भूमिका सामने आती है। अज्ञेय ने कहा
था- विज्ञान का कहना है कि दुनिया
दिन-ब-दिन छेाटी होती जाती है,
वह एक अर्थ में सही है,
लेकिन साहित्य में
यह बात सच नहीं है
,
हर बड़ा लेखक दुनिया को थोड़ा और बड़ा करके अपने
परवर्तियों को दे जाता है।’
अज्ञेय ने दुनिया को बड़ा
करने की बात कही है,
मैं इसमें जोड़ना चाहूंगा
कि साहित्यकार मानव समाज के लिए बेहतर दुनिया के
फलक को अपने योगदान से और बड़ा कर अपने परवर्तियों को दे जाता है।
मेरे विचार से न तो कोई विधा महत्वपूर्ण होती है और न ही कोई
माध्यम,
महत्वपूर्ण होती है विषयवस्तु। पहले आता है कि आप कहना क्या चाहते
हैं और बाद में आता है कि आप उसे कहते कैसे हैं। चाहे वो कवि हो,कहानीकार
हो,
नाटककार या व्यंग्यकार-सभी हैं तो मूलतः साहित्यकार। व्यंग्य-लेखन
साहित्य लेखन से अलग की वस्तु नहीं है। क्या व्यंग्यकार के सामाजिक
सरोकार
वही नहीं हैं जो एक कथाकार,
कवि या नाटककार के हैं?
हां
,
व्यंग्य लेखन
अन्य विधाओं से भिन्न प्रक्रिया की
मांग करता है । व्यंग्य आपको बेचैन
अध्कि करता है । अधिकांशतः सामयिक घटनाएं प्रेरक बिंदु होने के
कारण
व्यंग्य रचना अन्य विधाओं की अपेक्षा
अपने जन्म के लिए अधिक जल्दी में होती
है । मैंनें अन्य विधाओं में भी लिखा है और मेरा यह अनुभव है ।
व्यंग्य
लेखन की प्रक्रिया में मैंनें अन्य
विधाओं की अपेक्षा अधिक बेचैनी का अनुभव
किया है । वैसे तो रचना अपनी विधा स्वयं तलाश लेती है। मुझे
व्यंग्य के
माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करना
अधिक सहज लगता है। जब समाज अनैतिक होता
है और नैतिकता के ठेकेदार नैतिकता के छद्म में अपने अनैतिक कर्म
सफल बनाते
हैं तभी तो व्यंग्यकार की रचनात्मक
भूमिका जन्म लेती है । जब आंकडा़ छत्तीस
का हो और उसे तरेसठ का सिद्ध करने में सिद्धहस्त व्यस्त हों,
तभी तो
व्यंग्यकार उस विसंगति को उद्घाटित
करने के लिये अपना रचनात्मक विरोध
रजिस्टर करता है । आज राजनीति,
समाज,
धर्म
,
साहित्य आदि में जो मूल्यहीनता
की स्थिति है तथा जिस प्रकार हमारी वर्तमान व्यवस्था आक्रोश के
स्थान पर
पलायन के भाव को भरना चाहती हैं,
आर्थिक प्रगति के नाम पर विरोध के
प्रजातांत्रिक अधिकार को कुंद करना चाहती है
उसके चलते व्यंग्य की भूमिका
अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती है ।
व्यंग्य मूलतः एक सुशिक्षित मस्तिष्कि के प्रयोजन की विधा है
।;
महाज्ञानी मुझ अज्ञानी के इस वक्तव्य से यह अर्थ न लें कि व्यंग्य
लिखने या समझने के लिए हिन्दी में एम0
ए0
,
पीएच
0
डी0
करना आवश्यक है इस
कारण विश्वविद्यालय के लिए कदम - कदम
बढ़ा कर व्यंग्य के गीत गाने लगें ।
कबीर ने न तो मसि कागज छुआ और न कलम ही हाथ में गहि और ऐसे भी
महानुभाव हैं
जिन्होंनें मसि कागज छुआ और कलम गहि पर
व्यंग्य की समझ उनसे कोसों दूर ही
रही । ऐसे ज्ञानियों से गांव की गंवारन बेहतर जो बातों बातों में
कब गहरा
कटाक्ष कर जाती है पता ही नहीं चलता ।
व्यंग्य के प्रयोग में बहुत ही
सावधानी की आवश्यकता है । इसका लक्ष्य
मात्र विसंगतियों का उद्घाटन करना ही
नहीं है
,
अपितु उसपर प्रहार करना है
। यहां सवाल उठता है कि इस प्रहार की
प्रकृति क्या हो । व्यंग्य अगर हथियार है तो इसके प्रयोग में
सावधानी की
आवश्यकता भी है । तलवार को लक्ष्यहीन
हाथ में पकडकर घुमाने से किसी भी गला
कटकर अराजक स्थिति पैदा कर सकता है तथा स्वयं की हत्या का कारण भी
बन सकता
है ।
आज हिंदी व्यंग्य में इस तरह का अराजक माहौल पनप रहा है ।
इससे व्यंग्य अपने लक्ष्य से भटक रहा
है । जिस व्यंग्य को नैतिक तथा
सामाजिक यथार्थ की
गहराई से जुडकर,
पाठक को सही सामाजिक परिवर्तन की ओर
अग्रसर करना चाहिए
,
वही सस्ती लोकप्रियता के
चक्कर में सतह पर ही घूम रहा
है । अच्छा साहित्य लिखने की चुनौती और प्रतियोगिता तो साहित्य की
हर विधा
में है। कुछ आलोचक पूरे व्यंग्य
साहित्य को देायम दर्जे का साहित्य मानते
हैं।यदि लापफट्र शो या चुटकलेबाजीमय तथाकथित मंचीय कविता का रिश्ता
व्यंग्य
से जोड़ा जा सकता है तो क्या घटिया
धारावाहिकों का रिश्ता कथा-साहित्य से
नहीं जोड़ा जा सकता?
यदि व्यंग्यकार से पूछा जा
सकता है कि तुम अहसान
कुरेशी टाइप क्यों नहीं लिखते,
तो क्या किसी
‘श्रेष्ठ’
कथाकार से सवाल नहीं
किया जा सकता कि वह प्यारेलाल आवरा या
गुलशन नंदा टाइप क्यों नहीं लिखता?
क्या सभी व्यंग्यकार गहरे में नहीं उतरते हैं और दोयम दर्जे का
साहित्य
लिखते हैं,ैं
और समस्त कथाकार,नाटककार और कवि गहरे में ही उतरे पाए
जाते
हैं और उत्कृष्ट साहित्य रचते हैं?
व्यंग्य लेखन के अनेक उपमान मैले हो चुके हैं । सामाजिक
सरोकारों से जुड़े नए विषयों की खोज का
संस्कार मैंनें परसाई जी से ग्रहण
किया है। परसाई जी जिन दिनों अपनी टूटी टांग का इलाज दिल्ली के
सफदरजंग
अस्पताल में करवा रहे थे,
उन्ही दिनों मैंनें और हरिमोहन शर्मा ने उनका एक
साक्षात्कार लिया था। मेरे एक प्रश्न के उत्तर में परसाई जी ने
कहा- प्रेम
हमारी पीढ़ी ने अपने पिता को नंगा नहीं
देखा,
तुम देख सकते है। इस
प्रतीक
को अगर आप समझे ंतो आप आज के समाज में
व्यंग्यकार की भूमिका को अच्छी
प्रकार से समझ सकते हैं। आजादी के बाद का व्यंग्य साहित्य
अधिकांशतः
राजनीतिक विसंगतियों पर आधारित है। राजनीतिक विसंगतियों के अधिकांश
लक्ष्य
मूर्ख थे और उनके अंदर विसंगतियां
धीरे-धीरे पनप रही थीं। आज की व्यवस्था
हमें मूर्ख बना रही है।
व्यंग्य विधा जैसा प्रश्न बहुत घिस चुका है और अपनी चमक ही
नहीं पहचान भी खोने लगा है। अब यह सवाल
ऐसा लगता है जेसे आपके पास व्यंग्य
आलोचना में बहस के लिए और कोई मुद्दे नहीं हैं,
सो आप इसे ही घिसे जा रहे
हैं। इसे बंद कर दिया जाना चाहिए। व्यंग्य के औजारों की पहचान की
आवश्यक्ता
है। व्यंग्य लेखन अलग पहचान लिए कैसे
है इसपर चर्चा की आवश्यक्ता है।
निरंकुश लेखन,
विशेषकर व्यंग्य,
बहुत ही खतरनाक है। किसपर
व्यंग्य करना है के साथ-साथ यह जानना
भी आवश्यक है कि किसपर व्यंग्य नहीं
करना है। वंचितो पर व्यंग्य कतई नहीं करना चाहिए। मेरा प्रयत्न तो
ये ही
रहा है कि निडरता से अपनी बात कहूं,
पर कहां मैं कायर रह गया और किन विषयों
से बचकर निकल गया,
ये तो मेरे आलोचक बताएं या
बताएंगे तो मैं अपने को सही
कर सकूंगा। लेखक के दिलो दिमाग खुले हैं और उसमें विषयों को पकड़ने
की
क्षमता है तो उसे कहीं से भी विषय मिल
जाते हैं। मेरे विचार से कोई विषय
प्रखर या कुंद नहीं होता है अपितु उसकी अभिव्यक्ति उसे प्रखर बनाती
है। एक
विषय को परसाई उठाते थे और उसी विषय को
उनके कुछ समकालीन भी उठाते थे परंतु
विषय का ट्रीटमेंट परसाई को परसाई बनाता है। परसाई की पारसाई विषय
को
प्रखर बना देती थी। मैं परंपरागत
विषयों को दोहराने में अधिक विश्वास नहीं
करता हूं।
मैं बेहतर रचना को ही बेहतर मानने का पक्षधर हूं। कोई विधा
किसी रचना को श्रेष्ठ नहीं बनाती हैं
अपितु श्रेष्ठ रचनाएं किसी विधा को
श्रेष्ठ बनाती हैं। हमारी युवा पीढ़ी में जो ये भ्रम है कि वो
व्यंग्य के
नाम पर जो भी लिखेंगें वो श्रेष्ठ होगा,
उचित नहीं है। माना हंसी
बिक रही
है,
पर मैं साहित्य का उद्ेश्य बिकाउ होना नहीं मानता हूं। मेरा हास्य
से
कोई विरोध नहीं है और मेरा मानना है कि
व्यंग्य की अपेक्षा श्रेष्ठ हास्य
लिखना अधिक कठिन है। पर जिस तरह हमारे जीवन में निरंतर विसंगतियों
का
‘विकास’
हो रहा है ऐसे में साहित्य के माध्यम से हास्य परोसना अपने
साहित्यिक दायित्व से उदासीन होना होगा। व्यंग्य मेरे लिए वर्तमान
विसंगतियों पर प्रहार करने का जनवादी हथियार है।
मेरा यह भी मानना तो यह है कि व्यंग्य के लिए हास्य की
बैसाखी
का प्रयोग करना अनावश्यक है। हास्य के
नाम पर जिस तरह हास्यास्पद रचनाओं का
उत्पादन हो रहा है,
उस माहौल में व्यंग्य को
हास्य से जितना दूर रखा जाए
अच्छा है। हास्य और व्यंग्य दोनों का
आधार विसंगति है,
ऐसे में संभव है कि
किसी रचना में विसंगति का चित्रण करते
समय दोनों के दर्शन हो जाएं।
संप्रेषणीयता के नामपर,व्यंग्य से साथ हास्य के अनावश्यक
प्रयोग का मैं
विरोधी हूं।
व्यंग्य एक अराजक स्थिति में है । व्यंग्य की बढती
लोकप्रियता ने इसे बहुत हानि पहुंचाई
,
विशेषकर अखबारों में प्रकाशित होने
वाले स्तम्भों नें नई पीढी को बहुत दिगभ्रमित किया है । आज सात आठ
सौ
शब्दों की सीमा में लिखी जानी वाली
अखबारी टिप्पणियों को ही व्यंग्य रचना
मानने का आग्रह किया जाता है ।
क्षेत्रीय अखबारों में स्तम्भ लिखने वाले
नए रचनाकार अपनी कमीज का कालर उठाए,
व्यंग्यकार का तमगा लगाए घूमते हैं तथा
आग्रह करतें हैं कि उनकी अखबारी टिप्पणियों के कारण उन्हें
व्यंग्यकारों
की जमात में शामिल कर ही लिया जाए ।
स्वयं को व्यंग्यकारों की जमात में
जल्द से जल्द शामिल करवाने की लालसा तथा एक आध अखबारी कॉलम हथियाने
की
जुगाड़ दिशाहीन व्यंग्य को जन्म दे रही
है ।
आजकल व्यंग्य लेखन फैशन में है और जो वस्तु पफैशन में होती
है उसको चलने दिया जाता है और संत लोग
सार- सार गहि के थोथा उड़ाते रहते
हैं । आजकल लोग बहुत चतुर और सयाने हो चुके हैं,
वे उपभोक्तावादी समाज में
पल- बढ़ रहे हैं,
अतः लुभावने विज्ञापनों का
आनंद तो उठाते हैं पर उनके
बहकावे में कम आते हैं,
ये दीगर बात है कि
बच्चे आ जातें हैं,
पर बच्चे तो
बच्चे ही कहलातें हैं । जब किसी वस्तु
की मात्रा में वृद्धि होती है तो
उसकी गुणवत्ता में गिरावट आना स्वाभाविक है और उपभोक्तवादी समाज
में वही
टिकता है जो गुणवत्ता का ध्यान रखता है
। इस दृष्टि किसी भी
‘ब्रै्रंड’
के
प्रोमोशन में चाहे कितने ही
विज्ञापननुमा दावे कर लिए जाएं,
चाहे कितने ही
शुभकामना संदेश प्रसारित कर दिए जाएं,
अध्कि देर टिकेगा वही जिसमें
गुणवत्ता होगी ।
साहित्य के मार्ग में शार्ट कट नहीं होते हैं और जो शार्ट कट
तलाशते हैं वे मात्र आड़ी तिरछी
पगडंडियों पर भटकते हुए राजमार्ग पर चलने
का भ्रम पालते हैं । साहित्य का मार्ग पत्थरीला,
कंटीला एवं लम्बे संघर्ष
से युक्त है । इस मार्ग पर अनेक पड़ाव
आते हैं और उन पड़ावों को पार करने
के पश्चात् भी रचनाकार निश्चिंत तौर पर नहीं कह सकता कि उसने
लक्ष्य को पा
लिया है ।
व्यंग्य का अतीत बहुत ही सशक्त रहा है और वर्तमान प्रगतिशील
है । हर युग का कूडा़ छनता है । परसाई,जोशी,त्यागी
और शुक्ल के समय और भी
व्यंग्यकार लिख रहे थे पर उनकी चर्चा अधिक नहीं होती है ।
कुछ लोगों को समय
छांटता है और कुछ को साम्प्रदायिक
आलोचक भी छांटते हैं । अब आप जानते ही
हैं कि एक साहित्यिक सम्प्रदाय के लोग मुक्त कंठ से परसाई की
प्रशंसा करते
हैं,चलते-चलते
श्रीलाल जी का नाम लेते हैं पर रवीन्द्रनाथ त्यागी या शरद
जोशी चर्चा करते हुए उन्हें कब्ज हो जाती है । परसाई के अतिरिक्त
और किसी
का नाम लेने में उन्हें
‘संकोच’
;
एक पतिव्रता नारी जैसा संकोच,होता है।
व्यंग्य का वर्तमान बताता है कि व्यंग्य का भविष्य अच्छा है ।मेरा
लक्ष्य
केवल वर्तमान को अपनी अल्पबुद्धि को
प्रयोग कर सुंदर भविष्य की ओर भेजना है
।
अंतः में मैं निष्कर्ष के लिए अज्ञेय की कविता का आश्रय लेना
चाहूंगा।
अज्ञेय
कहते हैं-
आंगन के पार
द्वार खुले
द्वार
के पार आंगन
भवन के ओर-छोर
सभी मिले--
उन्हीं में कहीं खो गया भवन।
मेरा कहना है कि आज पूंजीवाद
ने सभी देशी विदेशी द्वार खोले हुए हैं। हमने भी अपने भवन के सभी
द्वार खोल
दिए है। पर इस प्रक्रिया में हमारा
अपना भवन जो भाषा,
संस्कृति और हमारी
अस्मिता का है,
कहीं खो न जाए। इन खुले द्वारों का कौन द्वारी है,
कौन
अगारी है कौन नहीं जानते कोई बात नहीं,
पर आज जो हमारा देवता बना हुआ है,
जो पा-लागन करता हुआ दिखाई
देता है,
उससे सावधान रहें। हम उस
सांप से सवाल
करें-
सांप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी
तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूंछूं,उत्तर
दोगे,
तब कैसे
सीखा डंसना
विष कहां से पाया?